दो बेरोजगार थे साथ- साथ ,
टाइम -पास करने को कर रहे थे बात |
पेट में भूख पर जेब खाली थी ,
रोजगार न होने से जीवन में बदहाली थी |
कितने ही ऑफिसों के लगाए चक्कर,
न जाने कितने दिए इंटरव्यू |
फिर भी परेशानी न हुई दूर,समस्या रही ज्यूँ की त्यूं |
मेरे माँ बाप ने पढाया यह सोचकर कि
मेरा बेटा भी जाएगा सरकारी दफ़्तर ...
कमाएगा खूब केस ,फिर हम भी करेंगे ऐश |
पर हाय! किस्मत, सारे सपने चूर- चूर हो गए |
दिल के अरमा ,आंसूओं में बह गए |
मेरे माँ बाप भी अपने सपने पूरे नहीं कर पाए |
इसी आस में तो उन्होंने अपने घर-बार लुटाए |
मैंने तो सीखा था दो और दो चार होते है |
पर मुझे पता लगा दो और दो पांच भी होते है :
घूस से झूठ साँच भी होते है
जिसका हो जाए जेक और चेक |
सरकार की नज़र में वही है नेक |
वही नौकरी के योग्य है |
वीर वसुंधरा भोग्य है |
मिला करते थे बचपन में अनेक मेडल व ट्राफिया ...
देख मुझे देते सब बारम्बार बधाइयां
और कहते थे --
यह एक दिन अपना नाम चमकाएगा |
पर क्या पता था उन्हें
यह तो भरपेट भोजन भी न पाएगा |
नीर गंगा का नहीं, मैं तो जल खारा हूं |
अरे ! "चंचल" वर्तमान की इस अव्यावहारिक शिक्षा प्रणाली का मारा हूँ |
यदि शिक्षा को व्यावहारिक बना दिया जाता ;
तो मैं आज यूँ दर दर की ठोकरें न खाता |
सैद्धांतिक रूप में जो हमें सिखाया जाता ;
व्यावहारिक रूप में भी मैं उसे ढाल पाता |
भावी भारत का कर्णधार हूँ मैं ,
इस दायित्व को भली भांति निभा पाता ||
प्रियंका जैन "चंचल" |
पेट में भूख पर जेब खाली थी ,
रोजगार न होने से जीवन में बदहाली थी |
कितने ही ऑफिसों के लगाए चक्कर,
न जाने कितने दिए इंटरव्यू |
फिर भी परेशानी न हुई दूर,समस्या रही ज्यूँ की त्यूं |
मेरे माँ बाप ने पढाया यह सोचकर कि
मेरा बेटा भी जाएगा सरकारी दफ़्तर ...
कमाएगा खूब केस ,फिर हम भी करेंगे ऐश |
पर हाय! किस्मत, सारे सपने चूर- चूर हो गए |
दिल के अरमा ,आंसूओं में बह गए |
मेरे माँ बाप भी अपने सपने पूरे नहीं कर पाए |
इसी आस में तो उन्होंने अपने घर-बार लुटाए |
मैंने तो सीखा था दो और दो चार होते है |
पर मुझे पता लगा दो और दो पांच भी होते है :
घूस से झूठ साँच भी होते है
जिसका हो जाए जेक और चेक |
सरकार की नज़र में वही है नेक |
वही नौकरी के योग्य है |
वीर वसुंधरा भोग्य है |
मिला करते थे बचपन में अनेक मेडल व ट्राफिया ...
देख मुझे देते सब बारम्बार बधाइयां
और कहते थे --
यह एक दिन अपना नाम चमकाएगा |
पर क्या पता था उन्हें
यह तो भरपेट भोजन भी न पाएगा |
नीर गंगा का नहीं, मैं तो जल खारा हूं |
अरे ! "चंचल" वर्तमान की इस अव्यावहारिक शिक्षा प्रणाली का मारा हूँ |
यदि शिक्षा को व्यावहारिक बना दिया जाता ;
तो मैं आज यूँ दर दर की ठोकरें न खाता |
सैद्धांतिक रूप में जो हमें सिखाया जाता ;
व्यावहारिक रूप में भी मैं उसे ढाल पाता |
भावी भारत का कर्णधार हूँ मैं ,
इस दायित्व को भली भांति निभा पाता ||
यही तो आज की पीढी़ का गम है
ReplyDeleteआपकी अभिव्यक्ति में सच का दम है
हा
Deleteपढ़ाना यहाँ धंधा है रोजगार है सपना।
ReplyDeleteसपना को ही देख देख टाइम पास हो रहा अपना
पढ़ाना यहाँ धंधा है रोजगार है सपना।
ReplyDeleteसपना को ही देख देख टाइम पास हो रहा अपना